मेरे इन्क़लाबी दोस्त अतुल अंशुमाली

अतुल अंशुमाली


तारकोल भरी रात की सड़क के एक ओर उग रही है दूब फैलाना चाहती है हरी घास का मैदान मेरे दोस्त क्या तुम अभी जिन्दा हो--


अभी कुछ देर पहले जलते टायरों के धुएँ ने एक घुटन और डर का माहौल बनाकर रखा था मैंने एक बच्चे को सहमा हुआ देखा मैंने एक आदमी को जलते हुए देखा मैंने एक महिला के साथ रेप होते देखा क्या तुम भी यह सब देख रहे हो दोस्त तुम्हारे उगने की पीड़ा पर यह अत्याचारी सड़क कहाँ से कहाँ होकर जाती है पता नहीं तुम्हारी वेदना तुम तक पहुँच पाती है पता नहीं मैं देखता हूँ तुम अब भी उग रहे हो तुम उग रहे हो न मेरे इन्क़लाबी दोस्त दुनिया के कदमों से पामाल होने पर भी


उस रोज प्रेम और हम तुम


एक दिन अचानक मिले यह अचानक वाला लम्हा ही प्रेम था... अचानक धरती से फूटा पोधा और धरती एक पोधे में जीने लगी सारे मौसम इन्हीं मौसमों की कहानी जीवन है और जीवन का रस प्रेम और प्रेम में हम हममें ही वो बीज है जानम जिसे अपनी मिट्टी में रखना है हमें एक दिन... फासलो में रहने वाले दो ग्रह वक्त की खला में उस रोज हम पृथ्वी हो गये जिस रोज एक नदी के ऊपर पहली बार पुल बना और हम इस पार से उस पार आने जाने लगे उसी रोज पहली बार महोब्बत हुई और सृष्टि की रचना


है ना बाबोजान..नाम के तेरे जो महके लफ्ज़ वो शायरी मेरी... बस मुझे इश्क तुझसे होना ही है जिन्दगी मेरी..