लाजवाब है ये जीत मगर लम्बा सफ़र है

भारतीय संस्कृति में बहुसंख्य ऐसा रहा है  जिसे दुनिया जहान ने अनुकरणीय माना है। बौद्धकाल में तो चीन और जापान ने भारत को जगतगुरू की पदवी दे दी थी। वजह साफ थी कि ज्ञान, विज्ञान, दर्शन अनुसंधान आदि में भारत अग्रणी था। तक्षशिला, विक्रमशिला, नालंदा जैसे 12 विश्वविद्यालय भारत में स्थापित हुए थे। विविधवर्णी भाषाओं, लिपियों और आचार का गुलदस्ता था भारत-सर्वसमावेशिता और बहुलता भारत की ऐसी विशेषता थी जो उस समय और कहीं नहीं थी। दुनिया की पहली किताब भी ऋगवेद कही जाती है जो ताल पत्र पर लिखी गयी थी। इसके पहले श्रुति यानी कहने सुनने की रचनात्मक रिवायत थी। लिपि के विकास के साथ इसका संकलन सूत्र रूप में ऋचाओं की शक्ल में वेद में हुआ। संस्कृति, सभ्यता और भाषिक सौन्दर्य में मानक स्थापित करने वाला भारत इतना असांस्कृतिक असभ्य, अवैज्ञानिक और अतार्कित हो सकता है, यह हाल ही सम्पन्न हुए 2019 के संसदीय चुनावी संग्राम में दुनिया ने देखा। विजयोन्मन्त शासक दल अपनी 'ऐतिहासिक विजय पर चाहे जितना गर्व करे लेकिन भाषायी मर्यादा और शुद्ध आरोपों प्रत्यारोपों, प्रायोजित झूठ, छल, विवाद और हिंसा के लिए ही यह चुनाव ज्यादा जाना जाएगा। मुकुटबिहारी सरोज की पंक्ति है इसमें रोने धोने की क्या बात है, हार-जीत तो दुनिया भर के साथ है। सवाल यह नहीं है कि कौन हारा और कौन जीता। संकट यह है कि हमारी मर्यादा, संस्कृति, संयम और आचार हारा है। जनतंत्र हारा है संसदीय प्रणाली की पद्धति हारी हैं। यह पहली बार है जब चुनाव आयोग पर इतनी उँगलियाँ एक साथ उठी हैं। देश के जनतंत्र के लिए यह शुभ नहीं है यों भी इतनी भीषण गर्मी में सात चरणों में इतनी लम्बी और गैर जरूरी प्रक्रिया पहली बार हुई है। पहली बार ही आयोग में विमति दर्ज करने की मांग उठी है। आँकड़े तो हाथ में नहीं हैं, लेकिन यह तय है कि इस चुनाव से पहले कभी भी आचार संहिता के उल्लंघन की इतनी शिकायतें नहीं हुईं और न ही शिकायतों पर इतने एतराज और मुबाहिसे हुए। धनबल, बाहुबल, राजसत्ता, धर्मसत्ता, जाति-सत्ता और सांप्रदायिकता का इतना भीषण प्रकोप पहले कभी नहीं रहा। यह जुमला-आलूद चुनाव रहा। चौकीदार चोर है, नामदार-कामदार, वंशवाद जातिवाद, कुल खानदान स्मरण, टुकड़ा-टुकड़ा गैंग, पुरस्कार लौटाऊ गैंग आदि-आदि शब्द बारबार उछलते रहे। माँ बहिन की गालियों तक टेलीविजन के पर्दे पर वीप के साथ सुनी गई । अखबारों में पढ़ी गयीं। सैना के कारनामे चुनाव प्रचार का हिस्सों बने । भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, कालाधन, खेती की समस्या, गरीबी, भुखमरी, मजदूर की दुरावस्था, चौपट होता बाजार, मंदी, किसानों की आत्महत्या,अपराध का बढ़ता ग्राफ, स्त्री-शोषण, रोटी-कपड़ा-मकान तो दर किनार रहे ही, पक्ष-प्रतिपक्ष का रिपोर्ट कार्ड भी जन-अदालत में पेश नहीं किया गया। भारत के संस्थापक प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का इतनी बार संदर्भ-हीन और अभ्रद रूप से नाम लिया गया कि अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने ट्वीट पर पूछा मैं जवाहरलाल को मैं वोट देना चाहती हूँ, कोई बताए कि वे किस सीट से खड़े हैं। यह तंज पर्याप्त मारक था। बहरहाल कांग्रेस यह बताने में असमर्थ रही कि 2014 के चुनाव को किस आधार पर जीता गया था। उसके मुद्दे और आलोचनाएँ क्या थीं और पिछले पांच सालों में उन पर क्या हुआ? सत्ताधारी भाजपा ने चुनाव ऐसे लड़ा जैसे यह सरकार में नहीं प्रतिपक्ष में है और विरोध ही उसका काम है। कहानी याद आई कि एक बाघ और मैमना एक ही नदी के घाट पर पानी पी रहे थे। शेर उपर की तरफ और मैमना नीचे। शेर ने कहा कि तूने मेरा पानी गंदा क्यों किया? मैमने ने कहा मैं तो बहाव के अगले हिस्से में हूँ, मैंने पानी कैसे गंदा किया। बाघ दहाड़ा, तूने नहीं तो तेरे बाप ने गंदा किया होगाकांग्रेस, महा गठबंधन, वाम प्रतिपक्ष में थी, उस पर आरोप बनते नहीं थे इसलिए उसका इतिहास कुरेद कर उस पर दोष मढ़े गये। जवाहरलाल के ऊपर मनोगत रूप से आरोप लगाये। नेहरू जी को दिवंगत हुए 45 साल हो गये। नयी पीढ़ी उनको इस तरह नहीं जानती। शिक्षा का, इतिहास का दुरूपयोग इतना हो चुका है कि गूगल बाबा ही नई पीढ़ी को प्रमाणिक लगता है। जहाँ इतिहास के नाम पर उलटीसीधी सूचनाओं का ढेर है। प्रामाणिक तथ्य ढूँढना, अँधेरे कमरे में काली बिल्ली को ढूंढने जैसा हैबहरहाल भाजपा को तमाम सवालों के बीच भी प्रचंड विजय मिली है। सारे प्रतिपक्ष सहित दुनिया जहान से उसे बधाईयाँ मिली हैंजीत का करिश्मा लाजबाब करने वाला भी रहा। जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 23 मई को भाजपा के केन्द्रीय कार्यालय के अपने भाषण में बहुत उदारता बरती। उनका भाषण बड़प्पन वाला था। सबका साथ, सबका विकास के साथ शायराना अंदाज में उन्होंने सबका विश्वास भी जोड़ दिया। यह भी कहा कि भले ही चुनाव बहुमत के आधार पर जीते जाते हैं। लेकिन सरकार तभी चलाई जा सकती है जब वह सर्वमत के सिद्धांत पर चलेअगर मुस्लिमों की आवाज अनसुनी रह गयी और सरकार तथा उसके इदारों में उनकी आनुपातिक नुमाइंदगी नहीं हुई तो यह सिद्धांत जुमला बनकर रह जायेगा। सवाल किसानों, मजदूरों और आखिरी पंक्ति के वंचितों के भी हैं जिन्हें कारपोरेट की बजाए प्राथमिकता देने को लेकर मोदी पहले से आलोचना की जद में हैं। दिलचस्प है कि चुनाव में ध्रुवीकरण के सारे हथकंडे अपनाये गये पर उनका भाषण उसके ठीक उलट था। खास कर मुसलमानों का दिल जीतने, विश्वास जीतने के मायने में। इस देश में वोट बैंक की राजनीति के उद्देश्य से बनाये काल्पनिक डर के जरिये अल्पसंख्यकों को धोखा दिया जाता रहा है, हमें इस छल का विच्छेद करना है। हमें विश्वास जीतना है।' उन्होंने यह भी कहा कि अब हमारा कोई पराया नहीं हो सकता। जो हमें वोट देते हैं वे भी हमारे हैं, जो हमारा घोर विरोध करते हैं वे भी हमारे हैं।' इस अंदाज से लग रहा है जैसे वे संघ परिवार की सख्त बंदिशों से बाहर निकल रहे हैं। जैसे अब उन्हें संघ परिवार की नहीं, संघ परिवार को उनकी नीतियों पर चलना होगा। सवाल यह है कि क्या वास्तव में ऐसा होगा? क्या मोदी है तो मुमकिन है वाली बात यहाँ लागू होगी? या 'सर्वमत' की बात वैसे ही जुमला बनकर रह जायेगी। जैसे 2014 के चुनाव पूर्व के 15 लाख, कालाधन, अच्छे दिन, आधार का उन्मूलन, जीएसटी-एफडीआई पर बोले वचन अंतत: जुमले ही रहे आये? नव निर्वाचित सरकार के सामने विदेशी और देशी नीति की कई चुनौतियाँ हैं। वोटरों की आकाश छूती हुई उम्मीदें हैं। अर्थ व्यवस्था खस्ता है। रोजगार की माँग चौतरफा है। मॅहगाई चुनाव में मुद्दा नहीं बन पाई मगर वह संकट तो है ही। रहा सवाल सब के साथ, सब के विकास, सबके विश्वास का तो पहला सवाल यह है कि 303 सांसदों में एक भी मुस्लिम नहीं हैं। क्या उनके प्रशंसनीय भाषण को उनके विश्वसनीय और कट्टरपंथी समर्थक जमीन पर उतरने देंगे? संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत का उदयपुर का इसी समय का भाषण 'अब हमें राम का करना है। अब राम का काम होकर रहेगाक्या संदेश संघ परिवार और भाजपा नीत गठबंधन को दे रहा है? समान नागरिक संहिता और धारा 370 के सवाल उन्हीं के समर्थक जोरशोर से उठा रहे हैं। इधर एक्जिट पोल ही आ रहे थे उधर सिवनी में एक ओटो में मांस को गौ-मांस कह कर एक आदमी को पेड़ से बाँध कर मारा, औरत को चप्पलों से पिटवाया जा रहा था। बेगूसराय में मो. कासिम को नाम पूछकर गोली मारी जा रही है। गुरुग्राम में वो बरकत आलम की टोपी उतरवा कर जबरन जय श्री राम का नारा लगवाया जाता है। मकवाना में दलित दंपत्ति प्रवीण मकवाना पर घर में घुसकर हमला किया जा रहा है। मथुरा में एक विदेशी को मारा जाता है। बांदो में छेड़खानी का विरोध करने वाली लड़की को जिन्दा जलाया जा रहा है। बिजनौर में दो अम्बेडकर की मूर्ति तोड़ी जा रही हैये सारी घटनाएँ सरकार समर्थक उन्मादी लोगों की हैं। इधर सबका साथ, सबका विकास सबका विश्वास चल रहा है। उधर यह हो रहा है। मोदी के सामने अपनी कथनी और अपने समर्थकों की करनी ज़रूरत में एकरुपता लाने की है, वरना यह समूचा और प्रशंसनीय भाषण में व्यक्त इरादे महज जुमलों का गुलदस्ता बनकर रह जाएँगे। चमत्कारित बहुमत से चुनी गई नयी सरकार को शुभकामनाओं के साथ।


                                                                                                 अनवारे इस्लाम