राजनीति में वंशवाद

लेख ...


• रघुठाकुर


राजनीति में वंशवाद


2019 लोकसभा चुनाव के पूर्व एक बार फिर देश में राजनीतिक वंशवाद पर बहस शुरु हुई है। वैसे तो यह बहस कोई नई नहीं है। आजादी के बाद वंशवाद का सबसे प्रखर विरोध स्व. लोहिया ने किया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरु के परिवारवाद पर सीधी ऊँगली ऊठाई थी। लोहिया को यह ऊँगली उठाने का नैतिक अधिकार भी था क्योंकि उनका राजनैतिक जीवन पूर्णतः वंशवाद से परे था।


लोहिया के अनुयायी अनेक लोग ऐसे हुए जो पार्टी के या सरकार के बड़े-बड़े पदों पर पहुँचे, संसद व विधानसभा में पहुँचे, परन्तु उन्होंने कभी भी अपने परिवार को तंत्र की ताकत से आगे बढ़ाने का प्रयास नहीं किया। स्व. मधुलिमये, कर्पूरी ठाकुर, रविराय, मृणाल गोरे राजनारायण जैसे अनेकों नाम लिये जा सकते हैं। हालांकि भारतीय राजनीति परिवारवाद से मुक्त नहीं हो सकी। लगभग तीन वर्ष पूर्व प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारणी में परिवार वाद के खिलाफ राय दी थी। मैने इसे पढ़कर उनकी तारीफ भी की थी और अपने अनेक प्रिय मित्र साथियों की आलोचना भी सही थी। जयशंकर गुप्ता और कुछ मित्रों ने लिखा था कि आप धोखा खायेगें। मैंने उन्हें कहा था कि हमको व्यक्ति की नीयत देखना चाहिये और कुछ समय इंतजार भी करना चाहिये। मेरे मित्रों की बात सही निकली। भाजपा ने उ.प्र. विधानसभा चुनाव और बाद में हुए पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में परिवारवाद को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, उल्टे परिवारवाद के आधार पर ही कई टिकिट दिये। मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि के चुनाव में जिताऊ प्रत्याशी के नाम पर नेता पुत्रों को टिकिट देकर उपकृत किया। भाजपा की म.प्र. कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री के सुझाव पर चर्चा हुई और राज्य शाखा ने प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को नकार दिया। मैं नहीं जानता कि प्रधानमंत्री की घोषणा या कथन महज औपचारिकता थी या वे अपने पार्टी के संगठन को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं। जो भी हो कुल मिला के भाजपा भी परिवार के पोशाक पार्टी के रुप में सामने है फर्क सिर्फ इतना है कि कांग्रेस में शीर्ष नेतृत्व परिवारवाद से लेकर नीचे तक है और भाजपा में शीर्ष के नीचे का परिवारवाद।


परिवारवाद के पक्ष में कांग्रेस पार्टी के लोग तो आरम्भ से रहे हैं। हालांकि आजादी के बाद कांग्रेस संगठन सत्ता का पिछलग्गू नहीं बना था। स्व. नेहरु कांग्रेस अध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रधानमंत्री पद पर भी थे। उन्होंने अपने गृहनगर इलाहाबाद में अपने दामाद स्व. फिरोज गांधी को 50 के दशक में पर्यवेक्षक बना कर भेजा था। जिला पार्टी ने इसका विरोध किया और जवाहरलाल जी ने स्व. फिरोज गांधी को पर्यवेक्षक पद से वापस बुला लिया। हालांकि यह स्वायतता थोड़े ही दिन चल पाई और उसके बाद जो छुट पुट पार्टी में आजादी के स्वर थे वे भी दबा दिये गये। वैसे भी जब दो शीर्ष पद प्रधानमंत्री व पार्टी अध्यक्ष एक ही व्यक्ति के पास होगे तो पार्टी जो आजादी के आंदोलन की पार्टी मानी जाती थी ने अपनी आजादी को स्वतः खो दिया और वह शीर्ष और सत्ता की पिछलग्गू बन गई।


श्रीमती गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने परिवारवाद को मजबूती से स्थापित किया तथा दल के बड़े प्रभावी नेताओं के बच्चों को उनके स्थान पर टिकिट देना शुरु किया। इस प्रक्रिया से जहाँ एक तरफ जो थोड़े बहुत विरोध के स्वर निजी तौर से उठ सकते थे वे स्वतः समाप्त हो गये और नेहरु परिवार के पद भी नीतिगत और स्थाई हो गये। जब कभी इसकी आलोचना हुई तो कांग्रेस के नेताओं ने तर्क करना शुरु किया कि अगर डाक्टर का बेटा डाक्टर बन सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं बन सकता? वे यह भूल गए कि डाक्टर या वकील, का बेटा जब डाक्टर या वकील बनता है तो उसे कम से कम परीक्षा पास करना होती है। परन्तु राजनीति में ऐसी कोई परीक्षा नहीं देना पड़ती। अब चूँकि भाजपा के लोगों ने भी एक प्रधानमंत्री को छोड़कर बकाया नीचे के स्तर पर परिवारवाद को स्वीकार कर लिया है। लगभग हर बड़े नेता की संतान टिकिट मांग और पा रही है अतः अब उनकी भी लाचारी है कि उन्हें परिवारवाद की सफाई देना है। भाजपा का यह गम्भीर अंतर विरोध सामने है जिसमें प्रधानमंत्री एक तरफ खड़े हैं और लगभग भाजपा उनके प्रतिपक्ष में खड़ी है। प्रधानमंत्री अपनी राय को लागू कराने के लिए कुछ द्रड़ता दिखायेंगे या शाब्दिक उपदेश देकर चुप्पी साध लेंगे, यह शीघ्र ही सामने आ जायेगा। हालांकि अभी तक देश में आम लोगों को ऐसा विश्वास है कि चूंकि नरेन्द्र मोदी का अपना कोई परिवार नहीं है अतः वे पार्टी में परिवारवाद को रोकेंगे। संघ जो भाजपा के सत्ता और संगठन को नियंत्रित करता आया है उसकी जानकारी व सहमति में विधानसभाओं के चुनावों में या पिछले लोक सभा के चुनावो में कई नेता पुत्रो को टिकिट दिये गये। उससे उनकी भूमिका भी संदिग्ध नजर आती है। चूंकि संगठन मंत्री और प्रचारक संघ से भाजपा में प्रतिनियुक्ति पर भेजे जाते हैं और वे संघ के निर्देशों को भाजपा में लागू करते है। अतः यह मानने का पर्याप्त आधार है कि प्रधानमंत्री पद के नीचे के स्तर पर या शीर्ष स्तर पर भाजपा के संगठन व सत्ता में चल रहा परिवारवाद संघ की मूक सहमति से है। अब तो कांग्रेस से ज्यादा भाजपा के नेताओं ने जोर शोर से और कुतर्को से परिवारवाद का समर्थन शुरु किया है। कुछ भाजपा के नेता बोले कि अगर नेता पुत्रों को टिकिट नहीं मिलेंगे तो वे दूसरी पार्टी में जाकर राजनीति करेंगे। कुछ लोग बोले कि नेताओं के पुत्रों को टिकिट नही मिलेंगे तो क्या नेता पुत्र भीख मांगेंगे? इन दोनों ही तर्को को कसौटी पर कसना चाहिये।


1. डाक्टर या वकील का चयन योग्यता की कसौटी पर होता है। परीक्षा में कुछ पक्षपात हो सकता है। रुपये और डोनेशन की भी कुछ भूमिका हो सकती है। परंतु अंततः तो परीक्षा पास करनी ही होती है। व्यापारी अगर अपने बेटे को अपनी गद्दी सौंपता है तो वह कुदरती उत्तराधिकारी है न कि राजनैतिक। अगर कोई व्यापार का नुकसान होता है तो व्यापारी को स्वतः भुगतना पड़ता है परंतु जब राजनैतिक पद पर बैठे व्यक्ति से या उसकी संतान या राजनैतिक वारिस में कोई त्रुटि होती है जो उस का खामियाजा समाज व देश को उठाना पड़ता है। राजनैतिक उत्तराधिकार केवल राजतंत्र या सांमतवाद में ही सम्भव हैलोकतंत्र में नहीं और इसलिए परिवारवाद लोकतंत्र को नव सांमतवाद या नवराजतंत्र में रुपान्तरित कर रहा है।


2. यह तर्क कि अगर नेताओं के पुत्रों को टिकिट नहीं मिलेगा तो वे दूसरे दलों में राजनीति करने जायेंगे यह कुतर्क भी है और झूठ भी है। अगर कोई नेता पुत्र किसी दूसरे दल की विचार धारा से सहमत होकर जाता है तो उसे यह अधिकार हैबल्कि इस प्रक्रिया से लोकतंत्र संवेदनशील परिपक्व और उत्तरदायित्व पूर्ण बनेगा। आचार्य कृपलानी विरोधी पार्टी में थे और उनकी पत्नी स्व. सुचेता कृपलानी कांग्रेस की मुख्यमंत्री थीं। एक घर में दोनों साथ रहते थे परंतु परस्पर कोई हस्तक्षेप नही था। स्व. भीम सेन सच्चर कांग्रेस के मुख्यमंत्री थे उनके बेटे न्यायमूर्ति राजेन्द्र सच्चर समाजवादी पार्टी और डा. लोहिया के साथी थे, एक ही घर में रहते थे। एक डाक्टर के कई बेटे हैं पर जरुरी नहीं हैं कि सभी एक ही व्यवसाय में हों। उनके काम अलग-अलग भी हो सकते हैं और फिर राजनीति कोई व्यवसाय या पेशा नही हैं। राजनीति तो विचार के आधार पर एक बेहतर समाज बनाने की क्रिया है। जो लोग इसकी तुलना व्यवसाय या धंधे से करते हैंवे अंततः भ्रष्टाचार का भी समर्थन करेंगे। क्योंकि व्यापार का उद्देश्य है मुनाफा कमाना और राजनीति का उद्देश्य हैं त्याग करना और मोह और लाभ को त्यागना। फिर ये परिवारवादी नेता यह भूल जाते हैं कि जब पहली बार उन्हें पार्टी से टिकिट मिला था तो उसके साथ पार्टी के सैकड़ों कार्यकर्ताओं का त्याग और बलिदान होता हैऐसा हो कि अगर केवल प्रत्याशी का परिवार ही समर्थन करेगा तो फिर वे कभी भी चुनाव नहीं जीत सकते। चुनाव जीतने के बाद जो सत्ता की ताकत उनके पक्ष में आती है वह धीरे-धीरे वे अपने संतानों के माध्यम से प्रयोग करने लगते हैं और कांलातर में उनकी संतानें ही उनकी माध्यम बन जाती हैं। मंत्रियों, सांसदों, विधायकों की शक्तियों का प्रयोग वे क्रमशः अपने बेटो के माध्यम से शुरु कर देते हैं तो वे कार्यकर्ता व दल को कमजोर कर देते हैं और परिवारवाद को मजबूत कर देते है। कई सांसदों और विधायकों को मैं जानता हूँ जिनके बेटे सांसद प्रतिनिधि हैऔर सांसद की ओर से सांसद निधि स्वीकृत करते है। कुछ तो ऐसे भी हैं जो अपने सांसद या विधायक निधि के प्रयोग के लिए अपने बेटो से सिफारिश करते हैं जैसे वह सांसद हो और वे कार्यकर्ता हों। समाज में और राजनैतिक दलों में इस प्रक्रिया से धीरे-धीरे स्वाभिमान और आजादी खत्म हो रही है। हालांकि इसके लिए समाज, लोग और कार्यकर्ता भी जिम्मेवार हैं। अक्सर कार्यकर्ता धीरे-धीरे पुत्रों को ही मालिक मान लेता है और सत्ता लाभ के लिए उनकी सेवा शुरु कर देता है। इसी का परिणाम है कि, आज राजनीति परतंत्र, गुलाम और बँधुआ मजदूरी जैसी हो चुकी है। सांसद विधायक अपने दल या दलीय नेतृत्व के सामने नतमस्तक है क्योंकि उन्हें टिकिट पाना है और इसका परिणाम कि संसद, विधानसभाएं जन प्रतिनिधि के बजाय दल प्रतिनिधि बन गई हैं।


3. यह कहना कि अगर नेता पुत्रों को टिकिट नहीं मिलेगा तो क्या वह भीख मांगेंगे? यह समूचे कार्यकर्ताओं का अपमान है। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उनकी पार्टी के कार्यकर्ता जिन्हें टिकिट नही मिलते वे भिखारी हैं और भीख मांगकर जी रहे हैं? किसी भी राजनैतिक दल के कार्यकर्ताओं का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है? अब समय आ गया है कि लोकतंत्र को नव सामंतवाद से बचाने जनता आगे आये। जब जनता और कार्यकर्ता इस नव सामंतवाद के खिलाफ विद्रोह करेंगे तभी पार्टियाँ भी सोचेंगी, देश सोचगा और राजनीति में बदलाव होगा। अन्यथा हम फिर से आजादी के पहले के उस दौर में जा रहे हैं जहाँ 500 राजे राजवाड़े थे और देश विभाजित था तथा इसी कारण से देश को लम्बी गुलामी सहना पड़ी थी। मैं किसी घमंड से नहीं बल्कि जानकारी के तौर पर यह लिखने को मजबूर हूँ कि मेरा छोटा भाई आपातकाल में पूरे समय जेल में था। सिर्फ इसलिए कि वह मेरा छोटा भाई था और जब 1977 में मैं स्वतः संसदीय बोर्ड का मेम्बर था मैंने न स्वतः टिकिट लिया न अपने भाई को दिया। जबकि यह सर्वविदित है कि जनता लहर में जीत सुनिश्चित थी और यह भी बता दें कि मेरा भाई न भीख मांग रहा है न परेशान है। हालांकि मुझे जरुर कभी-कभी उसके ताने सुनने को मिलते हैंजिन्हें देना उसका अधिकार है और सुनना मेरा दायित्व है। राजनैतिक दलों के नेतृत्व से भी मेरी अपील है कि अपने संगठन के संविधान में निम्न प्रावधान जोड़े।


1. कोई भी पदाधिकारी दो बार से अधिक पद पर नहीं रहेगा।


2. विधायक-सांसद को अधिकतम दो बार का अवसर प्राप्त होगा।


3. सरकार के मंत्रियों के बच्चों को टिकिट नहीं दिया जायेगातथा मंत्रियों को भी दो बार से अधिक अवसर नहीं दिया जायेगा